दंगा हो रहा है।

जिधर भी नज़रें उठाकर देखता हूं उधर ही दंगा हो रहा है,
जिस्म पर कपड़े डालकर इंसान सोच से नंगा हो रहा है।
पाखण्ड तो देखो इनका कि, गले तो मिलते हैं बड़े शौक़ से एक-दूजे से,
पर मन-ही-मन में एक-दूजे के लिए बेहिसाबी पंगा हो राह है,
जिधर भी नज़रें उठाकर देखता हूं, उधर ही दंगा हो रहा है।

नश्वर-शरीर को पाक-साफ रखने के लिए घिट-घीट कर नहाते है,
और पराई औरत तो छोड़ो,मासूम बच्ची को भी वहशी नज़रो से रोंद, ये नियत-जेहनियत से गंदा हो रहा है।
आज, देवी समान औरत का बाज़ार में धंधा हो रहा है,
आंखे होने पर भी ये, समाज अंधा हो रहा है,

ज़ूर्म होते हुए भी जबरन मांग करने पर दहेज़ दिया जा रहा है, इस चक्कर में, हर बेटी का बाप उपर से नीचे तक निचुडा जा है,
ये जानते हुए भी हर लौंडे का बाप क्या, अंधा हो रहा है?
जिधर भी नज़रें उठा कर देखता हूं, उधर ही दंगा हो रहा है।

जाती, धर्म, मजहब के नाम पर ये, लोग इंसनियत को बाट लेते हैं
ज़हरीले सांपो कि ,क्या ज़रूरत पड़ेगी इन्हें हेमंत, ये आपस में ही एक दूजे को काट लेते हैं।
दूसरों की गलती होने पर, ये जज बन डांट लेते हैं,
और खु़द गुन्हा करने पर, खुद ही मुंह बना रास्ता नाप लेते हैं।

ये सब देख कर यहां इन्हें, उन्हें, आपको और मुझे भी अचंभा हो रहा है,
जिधर भी नज़रें उठा कर देखो दंगा हो रहा है।

~हेमंत राय

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