वैश्या!
वैश्या!
ये तुच्छ प्राणी क्या ख़ाक समझेंगे मेरे जीवन को।
इन्होंने तो बस मेरे बदन की गर्मी को चांहा है।खुद,ही मुहँ उठाकर चले आते हैं,अपनी ठरक मिटाने।
बस अपनी छोटी और गंदी सोच को हमेशा सराहा है।
वांसना में डूब, नोंच-नोंच खा जाते, मेरे शरीर को और चाट जाते हैं औठो पे लगी लालियाँ
और फ़ेक जाते हैं बदले में बिस्तर पर चंद रुपये,और ढे़रो भद्दी गंदी गालियां।
ये तुच्छ प्राणी क्या ख़ाक समझेंगे मेरे जीवन को।
इन्होंने तो बस मेरे बदन की गर्मी को चांहा है।
बाहर गांव से लाकर हमको। कराते हैं हमसे ऐसा काम।
अपने दौलत के नशे में, हमसे हमारी ही इज़्ज़त बिचवा।
खुद बैठ गटकते हैं ये, जाम।
जहां औरत को मिलता देवी का मान।
वहीं हमें मिलता कोठे की वैश्या और रंडी का नाम।
अगर इतनी ही बुरी हूँ मैं और, खुद हो पाक साफ़।
तो क्यों पराई औरत को देख जीभ लपलपाते हो!
हमको तो तुम रंडी बुला-लेते हो।
पर खुद की गंदी,अभीष्ट नज़र पर पर्दा डाल। क्यूँ दोगला स्वांग रचाते हो?
ये तुच्छ प्राणी क्या ख़ाक समझेंगे मेरे जीवन को।
इन्होंने तो बस मेरे बदन की गर्मी को चांहा है।
हम तो रोटी की भूख मिटाने के लिए देह नीलाम करते हैं।
और तुम तो हवस की भूख मिटाने के लिए इंसानियत नीलाम करते हो!
घर की औरत तो तुम्हें माँ-बहन लगती,फिर कोठे की औरत को क्यूँ बदनाम करते...!
चलो मान लिया, हम रंडी सही पर तुम क्यों रंडियापा करते हो।
अपनी प्यास बुझाने को, क्यूँ भोग-विलास में मरते हो???
क्यूँ भोग-विलास में मरते हो???
क्यूँ भोग-विलास में मरते हो???
No words.... 🙌
ReplyDeleteआप अपने शब्दों का इस्तेमाल कर अपनी प्रतिक्रिया दे चुके हैं। धन्यवाद।
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