ब्रह्मास्त्र!(कविता)
हिन्दी कविता!!!
रस-वीर
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न अस्त्र हो, न शस्त्र हो,
बस ज्ञान का एक ‘ब्रह्मास्त्र’ हो।
सूरज सा उगे तू, हर एक क्षण,
न ढले तू, न ‘अस्त’ हो।
तुझे बोध हो, भूत का,
तुझे ज्ञात हो, भविष्य क्या।
सकल ज्ञान जो हो तुझमें,
तो न कभी, तू ‘ध्वस्त’ हो।
न अस्त्र हो, न शस्त्र हो।
बस ज्ञान का एक ‘ब्रह्मास्त्र’ हो।।
मेधावी बन दहाड़ तू,
बन ज्ञान का पहाड़ तू।
चल चीर दे ‘अंधकार’ तू,
कर ज्ञान का ‘आहार’ तू।
बुद्धिमत्ता का ‘स्पर्श’ हो,
चँहू ओर तेरा ‘वर्चस्व’ हो।
पंच इन्द्रियां तेरी वश में हो,
हो मुठ्ठी में तेरी, संग ‘हस्त‘ हो।
न अस्त्र हो, न शस्त्र हो,
बस ज्ञान का एक ‘ब्रह्मास्त्र’ हो।।
पूरी धारा का ज्ञान ले,
अम्बर को भी तू जान लें।
डोल तू मंदिर-मस्जिद में भी,
मरघट का भी तू ध्यान ले।
नदिया, सागर तू झील हो,
तू बहता रहे ‘गतिशील’ हो।
श्रम तेरा परी पूर्ण हो,
प्रत्येक दिशा तू ‘सम्पूर्ण’ हो।
तू यज् पढ़, तू ऋक् पढ़,
तू अर्थ पढ़, तू सम पढ़।
तू वेद पढ़, ‘पुराण’ पढ़,
तू पढ़ ले रस, ‘ब्रह्माण्ड’ पढ़।
न अचल तू हो,
न विचल तू हो,
निज कर ‘श्रम’,
और ‘सकल’ तू हो।
मोती बनके शब्द टपके तेरे,
झाड़े जब तू ‘वस्त्र’ हो।
न अस्त्र हो, न शस्त्र हो।
बस ज्ञान का एक ‘ब्रह्मास्त्र’ हो।।
अमृत हो तू्, और शुद्ध हो,
तू ज्ञान में ‘बुद्ध’ हो।
हो बोली तेरी, संगीत मय,
सुर न तेरा, ‘अवरुद्घ’ हो।
धैर्य भी हो भीतर तेरे,
अहम से न कोई ‘क्षुब्ध’ हो।
न तंत्र हो, न जंत्र हो,
जप ज्ञान तू मंत्र हो।
तोड़ अज्ञानता का तू,
बंधा हुआ शड़ यंत्र हो।
न अस्त्र हो, न शस्त्र हो।
बस ज्ञान का एक ‘ब्रह्मास्त्र’ हो।।
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हेमंत राय!
१०-७-२०२०
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रस-वीर
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न अस्त्र हो, न शस्त्र हो,
बस ज्ञान का एक ‘ब्रह्मास्त्र’ हो।
सूरज सा उगे तू, हर एक क्षण,
न ढले तू, न ‘अस्त’ हो।
तुझे बोध हो, भूत का,
तुझे ज्ञात हो, भविष्य क्या।
सकल ज्ञान जो हो तुझमें,
तो न कभी, तू ‘ध्वस्त’ हो।
न अस्त्र हो, न शस्त्र हो।
बस ज्ञान का एक ‘ब्रह्मास्त्र’ हो।।
मेधावी बन दहाड़ तू,
बन ज्ञान का पहाड़ तू।
चल चीर दे ‘अंधकार’ तू,
कर ज्ञान का ‘आहार’ तू।
बुद्धिमत्ता का ‘स्पर्श’ हो,
चँहू ओर तेरा ‘वर्चस्व’ हो।
पंच इन्द्रियां तेरी वश में हो,
हो मुठ्ठी में तेरी, संग ‘हस्त‘ हो।
न अस्त्र हो, न शस्त्र हो,
बस ज्ञान का एक ‘ब्रह्मास्त्र’ हो।।
पूरी धारा का ज्ञान ले,
अम्बर को भी तू जान लें।
डोल तू मंदिर-मस्जिद में भी,
मरघट का भी तू ध्यान ले।
नदिया, सागर तू झील हो,
तू बहता रहे ‘गतिशील’ हो।
श्रम तेरा परी पूर्ण हो,
प्रत्येक दिशा तू ‘सम्पूर्ण’ हो।
तू यज् पढ़, तू ऋक् पढ़,
तू अर्थ पढ़, तू सम पढ़।
तू वेद पढ़, ‘पुराण’ पढ़,
तू पढ़ ले रस, ‘ब्रह्माण्ड’ पढ़।
न अचल तू हो,
न विचल तू हो,
निज कर ‘श्रम’,
और ‘सकल’ तू हो।
मोती बनके शब्द टपके तेरे,
झाड़े जब तू ‘वस्त्र’ हो।
न अस्त्र हो, न शस्त्र हो।
बस ज्ञान का एक ‘ब्रह्मास्त्र’ हो।।
अमृत हो तू्, और शुद्ध हो,
तू ज्ञान में ‘बुद्ध’ हो।
हो बोली तेरी, संगीत मय,
सुर न तेरा, ‘अवरुद्घ’ हो।
धैर्य भी हो भीतर तेरे,
अहम से न कोई ‘क्षुब्ध’ हो।
न तंत्र हो, न जंत्र हो,
जप ज्ञान तू मंत्र हो।
तोड़ अज्ञानता का तू,
बंधा हुआ शड़ यंत्र हो।
न अस्त्र हो, न शस्त्र हो।
बस ज्ञान का एक ‘ब्रह्मास्त्र’ हो।।
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हेमंत राय!
१०-७-२०२०
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