ख़ामोश अदालत जारी है !
(हेमन्त राय)ख़ामोश! अदालत जारी है ! विजय तेंदुलकर द्वारा लिखित ऐसा नाटक जिसके नाम से ही प्रतीत होता है कि ख़ामोश रहिये अदालत जारी है।चाहें ये शब्द कहानी के बुजुर्गवार पात्र काशीकर द्वारा या बाकी के पात्रो द्वारा सामंत को कहें हो! या समाज को। ये सिर्फ एक कहानी नही बल्की एक ऐसी सच्चाई है। जिसमें लगातार एक काल्पनिक मुकदमे कि बदोलत अदालत के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए कहानी के सभी पात्र कहानी कि मुख्य किरदार (बेणारे बाई) पर मुकदमा चलाते हैं। या फिर ये कहें कि एक ऐसी स्त्री पर मुकदमा चलाते हैं जो असहाय है, लाचार है, या फिर यों कहें कि, मानव रूपी भेड़ियों के बीच एक नन्ही सी अजन्मी जान को नई दुनिया में आने कि खुशी देना चाहती है। उसे उसका नाम अथार्थ उसे उसकी पहचान दिलाना चाहती है, एक ऐसी स्त्री पर मुकदमा चलाया जाता है जो अपनी ज़िन्दगी को अपने तरीके से बिना किसी रोक-टोक, बिना किसी झिझक बिना किसी के पैरो के तले घु़ट-घु़ट कर जीवन व्यतीत करना चाहती है। वो अपने अदब, अपनी समझ, अपने काम, अपने फ़ैसले खुद निर्धारित करना चाहती है। कहानी के आरम्भिक भाग में पर्दा उठते ही मंच पर आते हुए दोनों पात्र(बेणारे,सामंत) के बीच की वार्तालाप बड़ी ही ताज़गी और उत्सुकता से भरी होती है। कहानी के माध्य भाग में पात्रो का एक दूसरे से हंसी-मज़ाक करना काशीकर का बालु को डांटना, कार्णिक का स्टाइल मारना,बालू का दब्बूपन, पोंछे का गंभीर रहना,सुख़ात्मे का बाते बनाना, मि० काशीकर का बातो के बीच में कूदना बड़ा ही मज़ेदार और आकर्षक बनाता है।तो वही दूसरी और नाटक में ही नाटक कि रिहर्सल की आड़ में बेणारे बाई पर मुकदमा चलाया जाना कई सवालों का जमावड़ा लगा देता है। और मुकदमे में खेल के नाम पर एक स्त्री की निजी ज़िंदगी को सबके आगे परोसना! व्यक्तिगत सवालों का ढ़ेरा लगाना, बड़ी ही घिनौनी स्थिति पैदा कर देता है। और फिर धीरे-धीरे एक के बाद एक सवालों का इतना व्यक्तिगत होता जाना एक रहस्यमय और प्रचंड स्थिति पैदा कर देता है। और ना पचाये जाने वाले सवालों का बेणारे से किये जाने पर उसके सामने विचित्र स्थिति पैदा करता है। और अंत में ना चाहते हुए भी बेणारे के मन में पुरुष के प्रति बसी सोच को दर्शाता है। कि कैसे अबतक कुछ भेडि़ये रूपी पुरुषों ने उसकी जिंदगी के साथ खिलवाड़ किया।
कहते हैं कि, नाटक(थियेटर) समाज का आईना होती है। और ये नाटक भी इसीलिए लिखा गया क्योंकि समाज में जो कहानी,प्रथा सदियों से चली आ रही है उसे सबके सामने दुबारा रखा जाए जिन्हें हम रोज़मर्रा की जिंदगी में अनदेखा करतें हैं। उसी के बारे में सोचा जाए और उस प्रथा को रोका जाए, एक ऐसी प्रथा जो एक औरत को उसके तरीके से जीने,रहने,सोचने के लिए के लिए स्वतंत्रता नहीं देती। बस स्वतंत्र देश में सिर्फ़ एक ही वर्ग को स्वतंत्र रहने की आजादी देती है। क्यों???
आखिर क्यों औरत को दबा कर रखा जाता है। चाहें स्कूल हो, दफ्तर हो, या उसी का खुद का घर हो।
कहते हैं कि औरत वही जो पिया मन भाए।
और पुरूष! पुरूष वही जो औरत को दबाएँ???
तो चले आइए एक ऐसे ही मुकदमे की सुनवाई में 5th sep-2017 Alliance Francaise,Lodhi road IHC Delhi
नमस्कार-
हेमन्त राय (थियेटर आर्टिस्ट,लेखक,बलोग्गर)
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