कलाकार!












तू हो सफ़ल या हो विफल,
लगा कर थोड़ी सी अकल,
करता चल पात्रों कि नकल।

भेद-भाव ना आड़े आए,
जात-पात ना बाधा बन जाए।
और धर्म के बटवारे में,
तू ना कभी हिलोरे खाए।।

चूंकि, कला ही तेरा कर्म है,
कला ही तेरा धर्म है,
कलाकार है तू तो यार,
किस बात कि फिर शर्म है।।

झिंझोड़ ख़ुद को भीतर से,
कुछ सीख बंदर और तीतर से।

बेकार में ना, गवा ये पल,
हो जा खड़ा और भाग चल।
अभिनय की तू पिस्तौल उठा,
पात्रों को फिर तू दाग चल।

घोल के पीजा अंग ये चार,
आंगिक, वाचिक, आहार्य, सात्विक,
कर ले इन सब का आहार।
फिर रंगमंच पर जब खड़ा तू होगा,
सुन्दर दिखेगा, पात्र व्यवहार।

पर, लगाम ख़ुद पर लगा अभी,
कि घमंड करेगा ना कभी।
परिवार की तरह ही तो हैं,
कलाकार सारे-सभी।।

हां, हो जा अचल, ना हो विचल,
मेहनत कर बन जा सकल।

हो अच्छा, या ना हो अच्छा,
अभिनय तू करता चल।
नाटक तू करता चल।।

~हेमंत राय।

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