काव्य रचना:- अग्नि और बरखा( हेमंत राय)


स वर्षो से सूखी धरती,
तरस रहे सब बरखा को,
आंधी आई, तूफ़ान भी आया,
बस, नहीं है पानी बरसा क्यों?

लपटें उठती अग्नि की,
जलता निरंतर अग्निकुंड,
परावसू बैठा है लेके,
पंडो का एक बड़ा-सा झुंड।

अंतहीन चल रहा है ये यज्ञ,
सब पंडो ने है ठानी,
इन्द्र देव हो जाए प्रसन्न तो,
तब,बरसाए तनिक पानी।

फिर,कर्तानट आता है लेकर,
छोटे-भाई का एक छोटा संदेश,
नाटक करवालो राजा जी एक,
नाटक करवालो राजा जी एक,
तब ही इन्द्र देव होंगे प्रसन्न,
और निश्चित बरसाएंगे पानी।

होने दे नाटक लीला कहकर,
‘परवासु’ ने ये बाते मानी,
और एक माह क्या पूर्व घटा था,
सुन लो पीछे की कहानी।

कि, उछल-कूद करता अरवसू,
मन-बुद्धि से है बालक,
बस, बिया चाहता है नितलाई संग,
है,अंतर्मन ना कोई लालच।

जंगल, तपवन, गया यवक्री
एक पग खड़ा हो जाता है
दूर-दूर तक ना आदम जाती,
कीट-पतंगे, विषेले फणिधर,
और चारो ओर, वो घातक जानवर पाता है।

दस वर्षो के हठ, तप- बल से,
इन्द्र देव का साक्षात वो पाता है,
व्याकुल, चिंघाट दहाड़े यवक्री,
ये क्रोध, विष, घृणा, सब भरा है मुझमें
यही तो मैं हूं, बस यही है मुझमें,
तुम इन्द्र हो तो देदो ये दान,
मै पाना हूं चाहता सर्व ज्ञान,
इन्द्र देव बोले यवक्री, क्यूं तू हठ ये करता है,
जा-लौट-जा घर को अपने,
क्यूं मूर्खता तू करता है,
फिर, अंग-प्रत्यंग काट-काट कर,
इन्द्र के आगे चढ़ा दिया,
विवश करके इन्द्र देव को,
 पुनः उसने बुला लिया,
कुछ ब्रह्म ज्ञान भी मिला नहीं।
कुछ खुद, उसने रचा लिया।

ख़ुद से रचाया ज्ञान पाकर,
स्वयं लौट आ जाता है,
देख विशाखा पानी भरते,
शब्दो का बाण चलाता है,
कमज़ोर, बेजान, विशाखा को,
जंगल की,आप बीती सुनाता है,
स्तब्ध, उदासीन, निष्ठुर मन को वो,
अति भावुक कर जाता है,
जीवन से भटके, मन विचलित व्यक्ति को
एक स्त्री ही समझ पाती है,
शब्दों की भूखी पड़ी विशाखा भी,
बाते करना चाहती है,
पीड़ा सहती पति वियोग की,
पूर्व प्रेमी में प्रेम पुनः वो पाती है,
फिर संग यवक्री कुटिया में जाकर,
अपना तन-मन न्योछावर कर जाती है।

उधर, नितलाई का हाथ मांगने अरवसु,
नितलाई के परिवार जन से मिलने जाता है,
अंधक की कुटिया रास्ते में पा,
वहीं कुछ देर, पैर जमाता है।
वानर अभिनय कर के अरवसु,
अंधक को छकाना चाहता है।
पैरो की आहट पहचाने अंधक,
सबको पहचान वो जाता है,
भोला, अरवसू छकाने आया,
उलट अंधक, से इस बार भी छक जाता है।
फिर दोनों बच्चो को बैठाकर अंधक,
संग उनका हाल चाल वो पाता है,
बदले में वो यवक्री के आने का,
संदेशा भी सुनाता है।
संदेश पाकर चचेरे भाई का अरवसू,
अति-उत्साहित हो जाता है,
काली पहाड़ी के पीछे मिलने,
नीतलाई, संग सरपट भागे जाता है।

भरे पानी, कलश देख कर भाभी का,
थोड़ा सहम सा जाता है,
भाभी के प्राण संकट में पा,
इस डर से थोड़ा सा डर वो जाता है,
फिर नीतलाई के बुद्धि के बल पर,
एक कुटिया की और जाता है,
कुटिया के भीतर है झांकता,
चचेरे भाई को तो पता है,
पर, नग्न अवस्था में भाभी को,
पर-पुरुष की बांहों में लिपटे पाता है।
ऐसी अवस्था में भाभी को देख,
क्षण-भर भी ना खड़ा वहां हो पाता है,
कलश उठाकर भाभी का अपनी,
घर दौड़े-दौड़े जाता है,
बच्ची होकर भी नितलाई,
स्तिथि को भांप जाती है,
यवक्री की इन करतूतों पर,
उसे खरीखोटी सुनाती है।
ब्रह्म ज्ञान पाया यवक्री कुछ,
क्रोधित यूं हो जाता है,
माह भीतर मृत्यु तेरी निश्चित नितलाई,
ऐसा श्राप सुना वो जाता है।

कांधे कलश उठाए अवरसू,
जैसे, ही घर को आता है,
भाभी संग उसको भी पिता(रैभय),
दियोंडी पर ही रुकवाता है।
देवर भाभी की जोड़ी कैसे,
साथ में आज यूं दिखती है,
कीचड़ में सनी, कुचैली भैंस सी,
क्यूं मुझे तू दिखती है
कौन था वहां, कौन था वहां,
लगातार बस, एक ही प्रश्न वो करता है,
कुछ ना कहने पर बहू के,
रण्डी वैश्या कहकर उसको,
धरती पर पटकता है।
स्वयं को असहाय पाकर विशाखा,
ताओ में आ जाती है,
वहां, यवक्री था संग मेरे,
पूरी शक्ति से चिल्लाती है,
बहू के इन शब्दो को सुन,
रैभ्य दंग हो जाता है,
और यवक्री इन करतूतों से,
उसका,अहंकार भी भंग हो जाता है
क्रोधित होकर यवक्री को,
चुनौती, ऐसी दे देता है,
ब्रह्म राक्षस पैदा कर,
कृत्य का आह्वान, कर देता है।

भाई से अपने प्रेम मुझे है,
एक उपचार मैं देता हूं,
पिता कुटिया में जो रुके यवक्री,
तो ही प्राण बचा वो पाएगा,
पग जो रखा, कुटिया से बाहर,
तो निश्चित मारा जाएगा।
ससुर की अपने बाते सुन वो,
दौड़ी-दौड़ी कुटिया को भागी जाती है,
हाथ जोड़कर, और विनती कर,
यवक्री को समझाती है।
अपने,पिता की कुटिया में तुम जाओ,
शीघ्र ही अपने प्राण बचाओ,

पर, हठ तप पे बैठा यवक्री,
चतुराई से कुछ यूं हंसा,
कि, मै क्यूं भागू इस पल से,
ये पल मैंने ही तो है रचा।

कैसे भूलू उस क्षण को मैं
तेरे, पति- ससुर ने जब, खड़ा किया बखेड़ा था,
महा पुरोहित बाप था मेरा,
और सबने, कीचड़ में उन्हे लतेडा था।

मै था प्रेमी तेरा, तुम थी मेरी प्रेयसी,
और बियाह परावसू से रचा लिया,
तब दुनिया थी मुझ पर हंसी।

बच गई तू जो समर्पण किया,
ना तो बलात्कार में करता,
और भिड़ने आता तेरा पति,
तब प्राण में उसके हरता।

बैठा था ताक में इस पल की मैं,
ना चूकने मैं दूंगा अब ये पल,
जीत तो निश्चित, मेरी ही होगी,
जय-जयकार होगी मेरी प्रतिपल।

यवक्री की बाते सुन विशाखा,
भयभीत हो जाती है,
मंत्र सिद्धि पानी भरे कमंडल को,
धीरे से लुढ़का जाती है।

सिद्धि-जल गिरता देख यवक्री,
अप-शब्द विशाखा को कहता है,
धरती पर गिरे जल की बूंदे,
बीन चाटे नहीं रहता है।

जीवन चाहते हो यवक्री तो,
अपने पिता की कुटिया में जाओ,
राक्षस पीछे आता ही होगा,
भागो अपने तुम प्राण बचाओ।

कुटिया की ओर भागे यवक्री
अंधक से टकराता है,
उसी क्षण में, ब्रह्म राक्षस,
फरसा, उसकी छाती के पार कर जाता है।
किसी से भी ना छकने वाला अंधक बाबा,
यवक्री से आज छक ही जाता है,
पैरो की आहट ने पहचान पाया,
बड़ा ही वो पछताता है,
और अंधक की गोदी में पड़ा यवक्री,
पल-भर में मर जाता है।

वहां,अरवसु की राह में बैठा कबीला,
और बाप नितलाई का क्षुब्द हो जाता है,
सूरज निकला और डूबने को है,
पर अरवसु ना पहुंच पाता है।


भरी सभा में भद्द उड़ी है,
कबीले में मेरी नाक कटी है।
तनिक भी ना अब रुकता हूं
जो चाहे उसको दू,नितलाई का हाथ,
में भरी सभा ये कहता हूं।

दौड़े-दौड़े पहुंचा अरवसु,
भाई बोला, लौट जा अरवसु,
तूने आने में कर दी देरी है,
दूजे संग बंधन में बंध गई है,
अब नितलाई नहीं रही तेरी है।

किस्सा यवक्री का सुन परावसु,
घन-घोर अंधेरे में घर को आता है।
पिता की दृष्टि पड़ने पर,
अपना शीश आगे झुकाता है।

ओ लंपट, महापुरोहित यज्ञ का है तू,
और चोरों कि तरह तू आया है,
एक माह अब शेष है अवभ्रत स्नान का,
और तू एकांत की वासना लिए,
पत्नी से मिलने आया है।

बाप बेटे के इस शड़ यंत्र में,
बेटा हारा जाता है,
हार स्वीकार नहीं परावसु को,
सो,बेटे के हाथो रैभ्य मारा जाता है।

प्रातः से पूर्व लौटना भी है उसे,
तो, अरवसू को बुलाता है,
पिता का क्रिया-कर्म अब तुम करोगे,
ये बात उसे कह जाता है।

अगली सुबह वो क्रियाकर्म कर,
पुनः नितलाई से मिलने जाता है
मिलकर नितलाई से, दामन में उसके,
अपने आंसू टपकाता है।

रोने से अब कुछ ना होगा,
अब तुम यहां से चले जाओ,
भैया तुम्हारे महा पुरोहित है,
यज्ञ में उनका हाथ बटाओ।

बाते मान नितलाई की वो,
यज्ञ में चला जाता है,
बैठा है जाकर पंड्डो के बीच,
और मंत्रो को दोहराता है।
भाई की आवाज़ पहचान परवसू,
बीच यज्ञ में खड़ा उसे वो कर देता है,
पितृ हत्या का दोषी ठहरा, पिटवा कर,
उसका धर्म निकाला कर देता है।

नदी किनारे पड़ा अरवसु,
अध-मरा हो जाता है,
बूढ़े को अपने जलाने आए
कर्तानट को ये दिख जाता है।
जिस यान पर लाश लाए थे,
उसी पर अरवसु को ले जाते हैं।
अपनी मंडली संग रख उसकी,
मरहम पट्टी करवाते हैं।
खबर मिलते ही पति के घर से नितलाई,
दौड़ी-दौड़ी चुप-छिपाकर आती है,
जब तक होश में ने आए अरवसु,
वहीं रुकने का मन बनाती है,
चंद दिनों में ही अरवसु,
पुनः होश में आता है,
आंखे खुलते ही वो अपनी,
नितलाई के दामन में छिप जाता है।

बचपन संग मैं, खेली तेरे,
अब बंधन में बंध गई हूं,
लौटना मुझको होगा अरवसू,
अब मैं तेरी नहीं रही हूं।

और मैं कहां, जाऊं अब तू ही बोल,
कहां, शरण पाऊ तू ही बोल,
यवक्री मर गया, पिता भी मेरे गए हैं,
और परावसू भैया ने तो मेरा,
देश निकाला कर दिया है,
और ब्राहमण जाति के दरवाज़े पर,
उसने मेरे लिए ताला जड़ दिया है।

बाते सुन अरवसू की,
कर्तानट मुंह खोल पड़ा,
तुम्हे विपत्ति ना हो तो,
मैं बताऊं एक काम करो,
‘अभिनय’ को ना अपने व्यर्थ गवाओ,
तुम मेरे नाटक में काम करो।

नाटक है करना इन्द्र विजय,
देवताओं की राक्षस पर विजय,
वृत्रा सुर(राक्षस) तुम बनोगे,
और इन्द्र बनना तो मेरा है तय।

तनिक भी ना अब समय गावाओ,
अभ्यास में तुम लीन जो जाओ,
पात्र प्रस्तुति करेगा अरवसु,
अपने अभिनय का तुम परचम लहराओ।

अगले ही पल कर्तानट, नाटक का,
प्रस्ताव लेकर जाता है,
सहमति पा कर राजा कि,
फिर लौट, तैयारी में जुट जाता है।

अंततः दिन आता है प्रस्तुति का,
पूरा राज्य एकत्रित हो जाता है,
विराजमान होते हैं राजा,
परावसू भी आता है।

नाटक होता है आरंभ,
इन्द्र दिखाया जाता है,
वृत्रा सुर के भेष अरवसू,
अभिनय करने आता है।

मुखौटा पहने अरवसु
राक्षस का है पात्र करे,
भईया विश्व रूप की,
मृत्यु के बदले,
इन्द्र पे जटिल प्रहार करे।

इन्द्र के भेष में कर्तानट,
क्षण में ही ये भाप गया है।
कोई रोको इस मुखौटे को भईया,
मुखौटा जीवंत हो गया है।


अरवसू के बस में ना कुछ,
मुखौटे के बस में अरवसु,
दर्शक गण भागे तितर-बितर,
और मुख़ से निकले सबके ये बस,
क्या करू कैसे बचू?

हाथ मशाल, लेके मुखौटा,
ऊंचे चबूतरे पर चढ़ता है।
आग लगाता चारो ओर,
आगे-ही-आगे बढ़ता है।
भीड़ को ख़ुद से दूर हटाकर,
आग में कूद जाता है,
फ़िर, पश्चाताप को परावसू,
उस आग के बीच खड़ा हो जाता।
और कुछ क्षणों में ही वो,
अग्नि में जलभुन पंचतत्व में विलीन हो जाता है।

अग्नि के बीच खड़ा अरवसू,
तनिक भी ना जल पाता है।
नितलाई के द्वारा वो अग्नि कुंड से,
जीवित ही बाहर आता है।।

और नितलाई को ढूंढे, पति और भईया,
तभी वहां ही पहुंचता है,
और भईया पकड़े अरवसू को,
पति-नितलाई मौत के घाट उतारता है।

मृत नितलाई को हाथो में ले अरवसु
अग्नि मृत्यु की ओर भाड़ता है,
तभी चमकता तेज इन्द्र देव का,
अंबर से नीचे उतरता है।
वत्स अरवसु रुको अब तुम,
क्यूं स्वयं ही स्वयं के हनन हुए,
मांगो तुम क्या वर मांगते हो
हम देवता अति प्रसन्न हुए,

मेरी तो बस एक नितलाई थी,
उसके अतिरिक्त क्या मांगता हूं
उसी को बस तुम जीवित करदो,
यही वर मैं तुमसे मांगता हूं।

नितलाई को चाहते ही जीवित,
तो चक्र पीछे घुमाना होगा,
और चक्र जो पीछे घूमेगा तो,
तो सभी मृतो का जीवंत हो जाना होगा।
और निश्चित नहीं की बदल पाओगे सब कुछ तुम,
महापुरोहित की गद्दी पाने की राजनीति,
परावसू की नियत और नीति,
हां,जो भी है आने दो सबको,
ये सब स्वीकार मैं करता हूं,
चूंकि, नितलाई अधिक प्रेम में करता हूं।

रुको अरवसू ऐसा वरदान ना मांगो,
सच्चाई से ना तुम यूं भागो,
पिता ने तुम्हारे जन्मा मुझे,
मैं शून्य में लटका तारा था,
भटक रहा हूं कब से में,
मुक्ति दिला दो तुम मुझे।
नितलाई के जीवन का जो वर मांग रहा है,
उसकी अनंत पीड़ा का तू मांग रहा है।
बड़ी ही भोली बच्ची थी वो,
मन से बिल्कुल सच्ची थी वो
मुझे भटकते ना वो देख सकेगी,
भीतर घुटती रहेगी प्रतिपल।

सुनो इन्द्र तुम मेरी सुनो अब,
जीवन चक्र ना रोको अब,
नितलाई होती तो वो भी चाहती,
तुम, मुक्त करो इस राक्षस को अब,

ठीक है अब ऐसा ही होगा,
और जीवन चक्र आगे बढ़ेगा।
‘तथास्तु’ कह कर इन्द्र देव भी,
अप्रत्यक्ष हो गया,
भटक रहे राक्षस मुक्ति और दे गया।
फिर बादल गरजे, गरजे मैघ,
पानी की ऐसी फुहार पड़ी,
हर्ष उल्लास हुआ चारो ओर,
आगे बढ़ी जीवन की गति।
आगे बढ़ी जीवन गति।।

हेमंत राय(लेखक, कवि, कलाकार)



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