मैं सो नहीं पाता(कविता)

मैं लेट जाता हूं बिस्तर पर,
लेकिन सो नहीं पाता।
और देखता रहता हूं छत से लटके,
गोल-गोल घूमते पंखे को लगातार।

वजह किसी महबूबा कि याद नहीं,
बनिपस्त, कानों में चुभता शोर है,
जो बिना कपाटों की इजाज़त के घुस जाता है भीतर,
और लगातार भेदता जाता है मस्तिष्क को।

एक, सौ, हज़ार, लाखो,
क़दमों के चलने की आहट,
अचानक ही बन जाती है कोई त्रासदी।

कुछ कह भी नहीं पाता किसी से,
मौन का मास्क जो लग गया है।

एक के बाद एक समस्या,
बन जाती है आपदाएं
और हिला देती है पूरे शरीर को,
जैसे धरती का कंपन किसी पूरे शहर को।

एकाएक आता है कुछ ना कर पाने के,
विचारों का चक्रवात,
और डुबो देता है शरीर संग आत्मा।

होने लगते हैं ‘दंगे’ मन और बुद्धि के बीच,
असंख्य और अनावश्यक,
जैसे होते हैं किन्हीं दो धर्मो के बीच,
और बट जाता हूं मैं,
जैसे बट जाती है,
देश की ज़मीं, आब-ओ-हवा,
और फिर इंसानियत।

फटने लगती है धमनियां,
विचारों की कोख के साथ,
और हो जाती है मृत्यु,
पनपते हर विचार की,
जैसे होती है किसी,
हथनी के कोख में पलते,
उसके बच्चे की मृत्यु।

हो जाता हूं असहाय,
सब कुछ जानते हुए,
समझते हुए,
बूझते हुए,
पर कुछ कर नहीं पाता,
जैसे कर नहीं पाता कुछ,
एक अभागा जीवित,
किन्तु लकवा ग्रस्त,
मृत शरीर।

और मैं लेटा रहता हूं बिस्तर पर,
यूं ही सारी रात,
किन्तु सो नहीं पाता।

~हेमंत राय।
5-06-2020

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