विकास हो गया!
बीती रात या यूं कहें कि, सुबह 4 बजे के करीब अचानक मेरी आंख खुली तो मैने जो देखा उसे देख पहले तो मैं डर गया कि, एक लैंप के उजाले में ये बोना(छोटा) सा, एक पैर, एक हाथ, एक आंख, एक कान, वाली बुजुर्गवार आकृति, ठीक मेरे बिस्तर के सामने रखी एक कुर्सी पर बैठी है, और सामने दीवार पर टंगे शीशे में अपने आप को छटपटाते हुए ढूंढ रही है। जब मेरी नज़र उस पर गई तो,
कुछ देर तक तो मैं एक टकी लगाकर डरते हुए उसे देखता ही रह गया।
पहले तो मैं एकदम जड़त्व हो गया, स्तब्ध।
इससे पहले मैंने कभी ऐसी आकृति नहीं देखा थी, अब मैं कुछ बोल पाता, उससे पहले ही उसने सामने से सवाल कर दिया- का भैयला, हेमंत बाबू ऐसे काहे घूर रहे हैं? उसके सवाल का जवाब दे पाता इससे पहले ही मैंने, खुद से सवाल कर डाला, क्या ये बिहार से आया है? बोली(भाषा) तो इसकी भोजपुरी की सी लग रही है,
तो वो बोल पड़ा!
विकास:- रे भाई नू समझ ले के बिहार सी आया हूं!
मेरा हाथ जो अब तक कंबल के भीतर था, वो अब सीधा सिर पर बालो के बीच पहुंच चुका था
(ख़ुद से) ये कैसे अचंभा है! इसने मेरी मन की बातो को कैसे जान लिया, ऊपर से अब हरियाणवी बोली(भाषा)।
मेरी समझ में कुछ आता इससे पहले ही विकास ने फिर सेl अपना मुंह खोला और कुछ यूं बोला!
विकास:- का रै का है गओ है रै तौए?
इस बार विकास की भाषा उत्तर प्रदेश की सी लगी मतलब, योगी राज्य की सी लगी।
अब मेरे हाथों ने मेरे सर के बालों खींचना शुरू कर दिया।
इससे पहले कि, अब मैं मन में कुछ सोंचू और इसे पता चले, मैं पूछ ही लेता हूं!
मैंने पूछा - कौन है भाई? उसने जवाब में कहा - ’विकास’!
उस का नाम सुनते ही मुझे हंसी आई कि, ख़ुद बोना सा और नाम - विकास! पर उसके एक पैर,एक हाथ, एक आंख वाली स्तिथि को देख दया के भाव के साथ,अगले ही पल मैं रुआसा भी हो गया। मैंने पूछा, यहां कैसे? तो वो बोला, की मैं भटक गया हूं। “तो मैं क्या करू” मैंने कहा।
वो बोला मुझे बात करनी है! मैंने कहा बोलो!
उसने कहा “चुनाव आ रहे हैं”
चुनाव का नाम सुनते ही मैं समझ गया ज़रूर ये किसी पार्टी के कार्यकर्ता है अभी किसी पार्टी की बुराई तो अपनी पार्टी की भलाई करेगा, पर ये है कौनसी पार्टी का? हां इसका धर्म जानू!
इससे पहले की, मैं सवाल करता वो खुद ही बोल पड़ा! धर्म - भारतीय!
मैंने कहा विकास तो ठीक है पर ये धर्म?
अच्छा पिता का नाम क्या है? वो बोला स्वतंत्रता सेनानी।
अब मेरा दिमाग ठनका ए भाई पागल - वागल हो क्या!
ये क्या लगा रखा है भटक गया हूं, नाम - भारतीय, बाप - स्वतंत्रता सेनानी क्या है ये सब? अबे हो कौन तुम?
अब जो उसने बोलना शुरू किया तो मैं बस मुंह फाड़े, आंखे फैलाए और कान खोले सुनता ही रह गया।
मैं विकास हूं, मैं पिछले 72 सालो से भटक रह हूं। मेरी मां भारत माता थी। पिता एक स्वतंत्रता सेनानी थे, आज़ादी से पहले ही उन्हें फांसी लगा दी गई। और आज़ादी के वक़्त मेरा जन्म तो हुआ पर ग़लत हाथो से। मुझे आश्वासन दिया गया कि- हम हर गांव, कस्बे, शहर, राज्य हर जगह तुम्हारी यात्रा करवाएंगे। पूरे देश में घुमाएंगे,हर जगह तुम्हारा आवागमन होगा। तुम्हारे आने से लोगो में खुशी का माहौल पैदा होगा। हर जगह तुम्हारा आदर-सत्कार होगा । बस, तब से ही मैं भटक ही रहा हूं। गांव-गांव, गली-गली हर जगह मेरी ही आस है लोगो को। मेरे नाम लिया तो जाता है, और हां मैं वहीं ‘विकास’ हूं जिसका आश्वासन हर जगह दिया जाता है, हमारे देश के मंत्रियों और नेताओ के द्वारा।
जब विकास ये सब बता रह था। तब मैंने देखा, उसकी आंखो से लगातार पानी बह रहा है, अरे ये तो इसके आंसू है। एक लम्बी चुप्पी के बाद उसने फिर बोलना शुरू किया।
मेरा ही नाम लिया जाता है, किसी पिछड़े गांव या शहर की उन्नति के लिए वहां के लोगो के लिए, वहां के छोटे-छोटे स्कूल जाने वाले बच्चो के लिए स्कूल बनाने और मुफ्त शिक्षा के लिए, कच्ची सड़क को पक्की करने के लिए, दमदार मजबूत बिना घोटाले का पुल बनाने के लिए, रोज़गार लाने के लिए, बलात्कार मुक्त देश बनने के लिए, कड़ी सुरक्षा के लिए, दंगो पर रोक लगाने के लिए, देश की उन्नति के लिए। और कई बार मुझ विकास को बुलाया भी जाता है, पर पनपने(टिकने) नहीं दिया जाता। कभी दंगो की बली चढ़ता हूं, कभी कट्टर पंथी राजनीतिक दलों, पार्टियों कभी आतंकवादी हमलों कभी, जीएसटी, कभी नोटबंदी कभी सी°ए°ए तो कभी एन°आर° सी।
इन 72 सालो में देश के कोने-कोने में बुलाया पर पनपने नहीं दिया गया। इन समाज के ठेकेदारों ने, नेताओ ने, और हर साल, हर 5 सालो में ये दावा भी किया जाता है कि इस बार विकास ज़रूर बढ़ेगा। पर नहीं! साल-दर-साल में घटता जा रहा हूं, बोना होता जा रहा हूं। मैं, अपंग होता जा रहा हूं! हां... अपंग!
और अब, मेरी आंखो से लगातार आंसू बह रहे थे....लगातार!
पर वो अब भी बोले ही जा रहा था और अब धीरे-धीरे वो ठीक मेरे कम्बल में आ चुका था। ठीक मेरे बगल में! वो कह रहा था कि, नेता की झूठी सांत्वना पर आज भी लोग मुंह ताके खड़े हो जाते मेरी आस में कि कब विकास बढ़ेगा।
और हर बार बस, यही सवाल रह जाता है कि, आखिर कब ये विकास...!
मैंने महसूस किया की वो ज़ोरो से कांप रहा है, और रो रहा है मैंने उसके आंसू पोंछे। अपना पूरा कम्बल उसको उड़ाह दिया। और ख़ुद बाहर निकल बिस्तर से उतर कमरे की ट्यूबलाइट जला दी। तभी देखता हूं कि, अब वो मेरे बिस्तर में है ही नहीं।
अब वो मेरी आंखो के सामने है ही नहीं, उस कमरे में नहीं है, उस कुर्सी पर नहीं है, उस शीशे के सामने नहीं, जो दीवार पर टंगा है, अब उस कमरे में उस बिस्तर, उस कुर्सी और उस दीवार पर टंगे शीशे के अलावा और कोई नहीं था, और उस शीशे के सामने अगर कोई था तो वो बस ‘मैं’ था। मैं!
कौन था वो, विकास? आखिर कौन जो रात भर मेरे और इस शीशे के बीच इसी कुर्सी पर बैठ बाते करता रहा।
क्या सब सच में था या मेरा खयाल! जो मेरे ही भीतर से फुदक कर बाहर आ गया मेरे ही सामने बैठा है, जो ना जाने कब से पनप रहा था मेरे भीतर, या मेरी ही तरह इस देश के स्कूल जाते हर बच्चे, रोज़गार तलाशते युवा या, रिटायर हुए बाप, बस,ट्रेन, मेट्रो में भारी भीड़ का हिस्सा बने उन लोगो के भीतर, घर से निकली अकेली औरत के मन में! या नज़रे उठाने पर जो भी सामने पड़ने पर दिखे उसके मन में। ये सब में शीशे के सामने खड़े होकर अभी तक सोच ही रहा था कि, इतने में ही, किसी ने दरवाज़ा खट-खटाया और नीचे से अख़बार खिसका दिया। मेरी नजर उस अख़बार पर गया, मैंने उस अख़बार को तो उठा लिए पर ना जाने वो खयाल कब खिसक गया। और मैं रोज़ाना की तरह अपने रोज़मर्रा के काम में व्यस्थ हो गया।
शायद वो अपंग विकास वाला ख्याल दुबारा फुदक कर भीतर ही बैठ गया, जो बाहर आकर पनपना चाहता है पर पनप नहीं पाता।
~हेमंत राय( थियेटर आर्टिस्ट, राइटर)
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