मजदूर ( कविता)

ये मज़दूर!!!

निकाले थे क़दम गांव से
शहर में जाने के लिए।

और करने लगे वहां मज़दूरी,
दो वक़्त के खाने के लिए।

इमारतें बनाई
भवन भी बनाए

ख़ुद झुग्गी में रखकर,
औरो के घर भी बनाए।

चलता रहे धन्ना सेठो का व्यापार,
उनके लिए बाजार भी लगाएं।

बालकनी में खड़े होकर,
उड़ाते हैं जो शौक़ से धुंआ।
उनके शौक़ पूरे हो सके
सो, इन्होंने सिग्रेट और सिगार भी बनाए।।

और, सहूलियतें हमे मिलती रहे,बराबर,
सो, कम पैसों में फैक्ट्री के धुंए के बीच
जूते-चप्पल, बर्तन-ढांडे,और तो और
तिरपाल भी बनाए।

घर बैठे हमे सब्ज़ी मिले,
सो गली-गली ये ठेला लिए फिरते है।
वैसे तो बनते है हम धन्ना सेठ पर,
दो रुपए के लिए भी इनसे भिड़ते हैं।।

बाजार, व्यापार,बिल्डिंग,फैक्ट्री
देखो अब सभी है बंद।
सांस लेना आसान नहीं है
और शुद्ध हवा अब बची है चंद।

घर में दुबक के, हम बैठे हैं सब,
जान की अपनी सबको पड़ी हैं,
अब किसी को नहीं दिखते मज़दूर।
पीठ पर अपना लादे घर,
जिनकी एक जमात खड़ी है।।

.........हेमंत राय!
27-03-2020

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