यह ज़िन्दगी क्या हो गई है???

ये ज़िन्दगी क्या हो गई है!

ये ज़िन्दगी रंगीन पर, कड़वे पानी की तरह हो गई है,
पर तुम शक्कर हो,और मैं नमक।
आओ तुम मुझमें मिलो, मैं तुम में घुल जाऊं,
हम दोनों मिलकर इसे मेहमानों की बैठकी का शरबत बना दे।

ये ज़िन्दगी बेस्वाद चाय की तरह हो गई है,
जबसे ये नए ज़माने के काग़ज़ के कप आए हैं।
आओ तुम फिर से, चीनी मिट्टी हो जाओ,
मैं कुम्हार बन जाता हूं, फिर दोनों मिलकर कुल्लहड्ड बना, चाय में स्वाद उड़ेलेंगे।

ये ज़िन्दगी अध-कच्ची,अध-पकी रोटी सी हो गई है,
जबसे ये नए ज़माने के गैंस वाले चूल्हे आए हैं,
आओ तुम फिर से आंगन में, मिट्टी का चूल्हा बन जाओ,
और मैं जलते हुए उपले।
फिर दोनों मिलकर रोटी को भरी-पूरी आंच में पकाएंगे,
फिर से छोटे-छोटे बच्चे इसी चूल्हे की राख में,
आलू को भून कर खाया करेंगे।

आज इस शहर के हर-घर में बहुत रोशनी है, पर सबके
मन-भीतर घुप्प अंधेरा जहां, सब खो गए है।
आओ, इस घुप्प अंधेरे में, मैं हिम्मत का दिया बन जाऊं,
और तुम रोशनी की बाती।
फिर इस घुप्प अंधेरे हम दोनों मिलकर, सबको एक नई दिशा देंगे।

~हेमंत राय।
25-02-2020
#नोट:- हम ज़िंदगी में इतनी आगे निकल गए हैं। कि, अपनी जड़ों को ही भूलने लगे हैं। फिर, कहते हैं कि, अब पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा। हम अपनी जड़ों को भूलने लगते हैं नज़र अंदाज़ करने लगते हैं। उन्हे, पानी देना बंद कर देते हैं, और फिर ज़िंदगी के पेड़ की उन टहनियों पर लटकने लगते हैं, जो कभी भी टूट कर गिर सकती है। चूंकि, जड़े तो कब की, कमज़ोर हो गई है, भूलने के कारण! और फिर आपस में ही शिक़ायत करते हैं। कि, अब कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा है।

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