काल्पनिक संस्मरण!

काल्पनिक संस्मरण!

तुम कितनी आसानी से कह देती हो, कि ‘कल्पनाशील’  मत हुआ करो।

मेरा यह कल्पनाशील होना सिर्फ ‘काल्पनिक’ नहीं है।
यह मेरे लिए उतना ही ‘असल’ है जितना की किसी वास्तविकता का होना ।

जीवन भर मुझे कभी किसी लड़की से प्रेम नहीं हुआ। और न ही किसी लड़की को मुझसे।

पर, जब भी मुझे प्रेम की भूख लगती रही, मैं हमेशा तुम्हें ही बुलाता रहा हूं। और तुम हमेशा आकर मेरे मन के आंगन में पड़ी हुई उदासीन ‘गर्द’ को, अपने होने के अस्तित्व से उड़ा देती हो।
फिर मन के उसी आंगन में प्रेम की तुलसी लगाती हो।
संग बैठ कर दो प्याला चाय बनाती हो, और दोनो प्याले मुझे ही पिला देती हो।
और हर बार दोनो छाक’ मुझे भर-भर कर प्रेम परोसती रही हो। और फिर थक जाने पर, ‘मैं’ भी तुम्हारे पैर दबाता हूं।

यूं तो मेरा कोई नहीं है यहां, इस दुनिया में। मैं एक दम खाली हूं।
पर तुम्हारे होने से मैं ‘भर’ जाता हूं। कभी, तुम ही ‘मां’ बनकर गोद में लिटाती हो।
कभी ‘बाप’ बनकर डांटती हो।
कभी ‘बहन’ बनकर लड़ती हो, तो कभी बड़े भाई के सारे फ़र्ज़ निभाती हो।
और प्रेम की चाह में ‘प्रेमिका’ भी बन जाती हो।

पता है? गणित की बड़ी-से-बड़ी समस्या को हल करने के लिए भी काल्पनिक होना पड़ता है ‘एक्स या वाई’ मानकर।

ठीक वैसे ही मेरे कल्पनाशील होने से मेरी ज़िंदगी के सारे गुण-भाग ‘हल’ हो जाते हैं।

अब यूं तो तुम भी ‘वास्तविकता’ में कहां हो!
पर, तुम्हे भी तो गढ़ लेता हूं मैं, ‘कल्पनाशील’ होकर।
ठीक वैसे ही,जैसे गढ़ा अभी,पूरा-का-पूरा कल्पनाओं में! ___________________________________________
एक ऐसे लेखक की तरफ से जो निचाट खाली है, पर कल्पनाओं के सहारे भर लेता है, खुद को।
~हेमंत राय।
८/६/२०२०
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