डरपोक !!! (कविता)

डरपोक!!!

मैं लेटा हूं कम्बल में,
घुप्प अंधेरे में।
और वो दौड़ रहा है।
मेरे सिरहाने, ‘लगातार’।

मेरे सिर के पास, मेरे तकिए पर,
कभी नीचे उतरता, कभी चढ़ता ऊपर,
और फिर दौड़ता-चढ़ता, चढ़ता-दौड़ता सिलसिले-वार।

मेरे हृदय के लगातार सांस लेने से,
उत्पन्न होने वाली ध्वनि से,
उसकी हलचल में होता बदलाव।

मैं अंधा हूं इस अंधेरे में, कम्बल के,
और वो मेरे शरीर की झड़ती हुई,
कोशिकाओ के बराबर आंख वाला।
क्या सब देख लेता है,?

उसे लगता है शायद ये अंधेरा रात का हैं
मैं कम्बल हटाता हूं। वो एक समय के लिए रुकता है
और फिर दौड़ लगता है। लम्बी दौड़।
खिड़की से आती रोशनी की तरफ बुद्दू !
उसके लिए जैसे, दिन हो गया।

अबे ओ ‘डरपोक’ रात ही है अभी,
कहां जा रहा है।
मैं अब भी कम्बल में हूं।
मुझे और सोना है।

अरे,पर वो गया कहां, भाग गया?
अकेले ही, मुझे छोड़कर?

उसे रोशनी दिखी तो अंधेरे से निकला,
भाग गया।
और मैं लेटा हूं यहां, अभी भी। कम्बल के अंधेरे में।

ये अंधेरा कम्बल का ही है,
या है मेरे निकम्मे, स्वार्थी, और अभागा होने का ?

और डरपोक कौन है, वो या मैं!???

~हेमंत राय।🙏
 12-04-2020

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