मृत्यु।

हम अधिकारी हैं उस मृत्यु के,
जो हम तक नहीं आती।

बनिस्पत, हम जाते हैं उस तक,
सब कुछ जानते और बूझते हुए।

हम अधिकारी हैं उस मृत्यु के,
जिसे हमने बोया है अपने आंगन में,
और फिर किया है, समय-समय पर इस्तेमाल।
कभी, जाति नाम की बासी हवा चलवाकर
तो कभी, धर्म के हवन में लोहबान की तरह जलाकर।

और साक्षात खड़े हो जाते हैं सामने उस मृत्यु के,
और पाल लेते हैं आडम्बर पवित्र और अमर होने का।

हम अधिकारी हैं उस मृत्यु के,
जिसे बुलाया है हमने स्वत: ही,
प्रकृति को निगलकर,
और अब स्वयं निगले जा रहे है तेज़ी से,
आपदाओं, त्रासिदी तो कभी महामारी की शक्ल में।

हम अधिकारी हैं उस मृत्यु के,
जिसे हमने घसीट लिया है, बुढ़ापे की देहली से,
अतृप्त जवानी की ओर।
और लिप्त हो चुके हैं नशे और वासनाओं में।

हम अधिकारी हैं उस मृत्यु के,
जो मिली है हमें भेंट,
सत्ता और, राजनीतिज्ञो की ओर से सौगात में।

हम अधिकारी हैं उस मृत्यु के,
जिसे जी रहें हैं हम, जीते जी।
बिना मरे।

। हेमंत राय ।
5-05-2020

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