मैं मटका हूं(कविता)

मैं मटका हूं।
पानी का।

जिसे बनाता है एक ग़रीब, ‘कुम्हार’,

मैं अमूमन हर जगह पाया जाता रहा हूं,
समय-समय पर।

और इज्ज़त इतनी कि,
पटक दिया जाता है
घर के आंगन से लेकर,
किसी भी चौक किनारे पर।

फिर भी मैं निभाता हूं साथ,
पानी की तलाश में भटकते,
लोगो की प्यास की तृप्ति के लिए।
फिर भी, हाथ लगाकर, पुचकारते नहीं,
जैसे पुचकारते है,
ऊचे तबकों वाले उन,
फ्रिज को,
और मुझे देखते भी नहीं,
जानते ही नहीं मेरी अवस्था को,
जैसे, कोई अर्थ ही नहीं मेरे अस्तित्व का।

उच्च प्राणियों के उच्च कोटि वाले,
फ्रिज, जब बना देते शिकार,
नज़ला-जुकाम का,
तो याद आती है मेरी,
पुनः दौड़ लगाते हैं मेरी तरफ,
ऐसे जैसे कि मैं कोई,
अमृत रस का सागर हूं।
और तृप्ति पाकर लौट जाते हैं।

जैसे लौट जाता है कोई नेता,
चुनाव के बाद,
और आता नहीं कभी जानने हाल,
अपनी आवाम का।

क्यूंकि,मैं मटका हूं,
पानी का।

जिसे बनाता है एक ग़रीब, ‘कुम्हार’।

~हेमंत राय
२८/०५/२०२०

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