अथ से आरंभ (कविता)
कविता!
अथ से आरंभ...... ???
सब कुछ बदल जाता है...ये दिन, ये रात, होती है हर, किसी से बस तेरी ही बात,
अकेलापन हो जाता है दूर ओढ़ कर तेरे आने का एहसास।
गुमसुम सी थी मैं, गुनगुने लगती हूं, तेरी पंक्तियां-रचनाए गुनगुनाने लगती हूं।
मै फिर से एक नई कली की तरह उभरने लगती हूं,
तेरे नाम को मंत्र की तरह दौहराने लगती हूं।
पगडंडियों की तरह मेरे जीवन के भी रास्ते नज़र आने लगते हैं।
सीधे और गुमनामी भरे मेरे जीवन में भी पुनः फिर एक मोड़ आ जाता है, जब तू आ जाता है।
.
जब तू नहीं था यहां:-
यहां की शामे भी उदास थी, मेरे मन्न के गांव में, अमावस की रात थी।
तेरे ज़िक्र से लोग मुझे चिढ़ाते थे,
मेरी पीठ पीछे तेरी-मेरी ना जाने,
क्या-क्या बाते बनाते थे।
हो ना जाए कोई अनिष्ट सब घबराते थे,
मेरे संग-संग ये मेघ ये पर्वत भी, उदास हो जाते थे।
.
जब तू बीच में आया था यहां:-
उस समय मुझे वो तेरी पंक्तियां, वो बातें, अमीर उमराओ की कव्वालियां, वो ग़ज़लें भी, गालियां लगती थी,
हर शाम मंदिर - मस्जिद पीर के आगे, ढेरों सवालिया लगती थी।
वो गीता, वो कुरान - कलमा सब अधूरा लगता था,
अकेले ज़िन्दगी जिए जाना बेफितुरा लगता था।
अब-जब तू आ ही गया है:- वो बादल वो मेघ फिर घिर आएं,
तेरे पीछे-पीचे सब घर आएं हैं।
अब इन बहारो का भी आ जाना, बारिश में भीग जाना, तेरे होने के एहसास से बदन का रोम - रोम खिल जाना।
कितनी खुश हूं मैं आज कि, इन हवाओं में, मेरा तोशक पुनः उड़ा जा रहा है,
है ना ये बिल्कुल, ‘आषाढ का एक दिन’ जैसा एहसास,
मै बन बैठी हूं ‘मल्लिका’, और तुम मेरे प्रेमी ‘कालिदास’।
किन्तु, क्या संभव है ये पुनः अथ से आरंभ कर जाना,
नियति के अधीन, निर्धारित हो चुका है इस, मल्लिका का एक अ:सफल कालिदास(विलोम) का हो जाना।
.
~हेमंत राय।
अथ से आरंभ...... ???
सब कुछ बदल जाता है...ये दिन, ये रात, होती है हर, किसी से बस तेरी ही बात,
अकेलापन हो जाता है दूर ओढ़ कर तेरे आने का एहसास।
गुमसुम सी थी मैं, गुनगुने लगती हूं, तेरी पंक्तियां-रचनाए गुनगुनाने लगती हूं।
मै फिर से एक नई कली की तरह उभरने लगती हूं,
तेरे नाम को मंत्र की तरह दौहराने लगती हूं।
पगडंडियों की तरह मेरे जीवन के भी रास्ते नज़र आने लगते हैं।
सीधे और गुमनामी भरे मेरे जीवन में भी पुनः फिर एक मोड़ आ जाता है, जब तू आ जाता है।
.
जब तू नहीं था यहां:-
यहां की शामे भी उदास थी, मेरे मन्न के गांव में, अमावस की रात थी।
तेरे ज़िक्र से लोग मुझे चिढ़ाते थे,
मेरी पीठ पीछे तेरी-मेरी ना जाने,
क्या-क्या बाते बनाते थे।
हो ना जाए कोई अनिष्ट सब घबराते थे,
मेरे संग-संग ये मेघ ये पर्वत भी, उदास हो जाते थे।
.
जब तू बीच में आया था यहां:-
उस समय मुझे वो तेरी पंक्तियां, वो बातें, अमीर उमराओ की कव्वालियां, वो ग़ज़लें भी, गालियां लगती थी,
हर शाम मंदिर - मस्जिद पीर के आगे, ढेरों सवालिया लगती थी।
वो गीता, वो कुरान - कलमा सब अधूरा लगता था,
अकेले ज़िन्दगी जिए जाना बेफितुरा लगता था।
अब-जब तू आ ही गया है:- वो बादल वो मेघ फिर घिर आएं,
तेरे पीछे-पीचे सब घर आएं हैं।
अब इन बहारो का भी आ जाना, बारिश में भीग जाना, तेरे होने के एहसास से बदन का रोम - रोम खिल जाना।
कितनी खुश हूं मैं आज कि, इन हवाओं में, मेरा तोशक पुनः उड़ा जा रहा है,
है ना ये बिल्कुल, ‘आषाढ का एक दिन’ जैसा एहसास,
मै बन बैठी हूं ‘मल्लिका’, और तुम मेरे प्रेमी ‘कालिदास’।
किन्तु, क्या संभव है ये पुनः अथ से आरंभ कर जाना,
नियति के अधीन, निर्धारित हो चुका है इस, मल्लिका का एक अ:सफल कालिदास(विलोम) का हो जाना।
.
~हेमंत राय।
Comments
Post a Comment