कविता:- सरकारी घाव!
कविता:- ©हेमंत राय। | @writer_rai
‘एक’ थी वो अकेली,
कोई ना था साथ,
संग कोई ना सहेली,
‘दुजी’ थी वो रात।
बीता ‘तीसरी’ पहर,
फिर घटा था ये कहर,
कि ‘चार’ कुत्ते खेत में,
थे लगाए बैठे घात।
‘पांचों’ इंद्रियों को उसकी,
कुत्तों ने खरोंचा था,
तोड़ा उसकी अस्थियों को,
अंगो को भी नोचा था।
‘छ’ दिन तलक वो,
मुह से रक्त को उगल रही थी।
सांस उसकी थम रही थी,
नब्ज़ भी पिघल रही थी।
‘सात’ रोज़ तक,
न कोई कार्यवाही थी,
कुत्ते खुले घूम रहे थे,
सत्ता दुराचारी थी।
चार क्या वो थे ‘आठ’,
सत्ता के उनपे थे ठाठ,
एक मिट्टी के हैं सब,
तो क्यूं घृणा का पढ़ते पाठ।
‘नो’ रत्नों की माला,
मानो यूं बिखर रही थी,
बेटी थी उधड़ी पड़ी,
मां भी बिफर रही थी।
रिपोर्ट लिखे ही बिना,
प्रशासन पल्ला झाड़ रही थी,
रेप को छेड़खानी की,
व्याख्या से डकार रही थी।
सांस थमने पे उसको,
रातों-रात जला दिया।
प्रमाण सब गायब कर,
मुद्दा था टला दिया।
हर गांव हर शहर में,
ज़ोर का हल्ला था,
मूह पे चुप्पी बांधे,
खड़ा हर ठुल्ला था।
राजा भी चुप बैठा रहा,
मंत्री भी चुप बैठे रहे
पत्रकार गिड़गिड़ाते रहे,
सब उन पे ऐंठे रहे।
एक नहीं यह तो दस,
झूठे वादे करते बस।
खड़े बग़ल मोर हैं,
भीतर इनके चोर हैं।
रोज़ बनते हैं नियम,
नए आज भी यहां,
लुटती आबरु के,
विरूद्ध कोई नियम कहां।।
पहले भी हुआ यह सब
आगे भी होता रहेगा,
जब तलक है इसी राजनीति,
इंसान लाश ढोता रहेगा।
इंसान लाश ढोता रहेगा।।
धन्यवाद्
हेमंत राय।
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